The Conspiracy Of The Market: Unraveling The Crisis In Television Journalism
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Abstract
संचार माध्यमांे में दूरदर्शन की अहम भूमिका रही हैं जिसमें माननवीय संवेदनाएं एकदम संसार के एक कोने से दूसरे कोने में प्रकट होती हैं और
भावनाओं के सागर को उकेरने का काम दूरदर्शन करता है। जनसंचार में दूरदर्शन का योगदान क्या है और उसका स्वास्थ्य कैसा है? संसार
में इसकी सार्थकता क्या है? ये कैसे लोगां में संस्कार डाल रहा है? आज क्या प्रस्तुत कर रहा है? ये और ऐसे कई विचारणीय मुद्दे आज के
समय में बार-बार हमारे सामने उठ रहे हैं।
इन सभी मद्दों से पहले यह जानना भी जरूरी है कि क्या दूरदर्शन के बिना आम आदमी रह पाएगा? इसकी अभिव्यक्ति के बिना उसे सब
सूना-सूना ही लगेगा। यह एक विरोधभासी स्थिति है कि दूरदर्शन लोगों के बीच की दूरी कम भी करता है और बढाता भी है। इसमें कोई
सन्देह नहीं है कि जनसंचार के अनेक माध्यमों में टेलीविज़न की भूमिका सर्वोपरि है।
वर्तमान में दूरदर्शन का वास्तविक स्वरूप समाज को घेराबन्दी कर रहा है। आज वह हमारे सामाजिक ताने-बाने पर इतना गहरा प्रहार कर रहा
है कि सामाजिक रिश्तों की गरिमा भी दूरदर्शन के इर्द-गिर्द मंडराने लगी हैं। यह भी सच है कि दूरदर्शन आज एक प्रतिष्ठा का प्रतीक बन
गया है। आज इसने हर वर्ग के बच्चों, बूढ़ों, स्त्राी, पुरूष, सवर्ण, दलित सभी को अपने जाल में ऐसा पंँफसा लिया है कि इससे निकल पाना
असम्भव-सा लगता है। यदि हम शहरों की बात करें तो दूसरे दिनों की अपेक्षा शनिवार और रविवार को लोग दूरदर्शन के कार्यक्रम देखना
ज्यादा पसन्द करते हैं। जिससे एक तरपफ दूरदर्शन से सम्पर्क बढ़ता है मगर दूसरी और सामाजिक रूप से वह जनसम्पर्क करता है। आज
टेलीविज़न केवल दूदर्शन नहीं रहा उसमें निज़ी चैनलों के आगमन के कारण उसकी भरमार हो गई है। टेलीविज़न के बटन दबाते ही हमारे
सामने चैनलों की एक छोटी सी दुनिया सामने आ जाती है। उस दुनिया को संचालित करने के लिए रिमोट की व्यवस्था ने हमारे सामने अनेक
कार्यक्रमों की कतार लगा दी है। व्यक्ति अपनी पसन्द और नापसन्द के कार्यक्रमों का चयन करने के लिए स्वतंत्रा है। अब उसकी यह बाध्यता
नहीं है कि दूरदर्शन पर दिखाने वाले कार्यक्रमों के हर कार्यक्रम को उसे देखना ही होगा।